पर्व -परम्पराओं में अपनी मिठास घोलते बताशे - Batasha adds his sweetness to festivals and traditions

     गर्मी के दिनों में कभी बताशों की बादशाहत हुआ करती थी बताशे उसी सिल्क रूट की उपज हैं जिनसे होकर व्यापार हुआ करता था इस व्यापार में चीनी के शामिल होने के बाद उन्ही रास्तो पर इंसानी ज़रूरतों के लिए नई सम्भावनाओं के रूप में जिनमे बताशा ने कई सदियों तक साथ निभाया। लम्बे सफर औऱ कच्चे डगर पर ऋतुवें बदलती रही मगर यात्राएं निरंतर चलती रहती। इन्ही रास्तो के किनारे सरायों के पास कुएँ, इनार, बावड़ी या फिर बड़े कूड़ो में रखे पानी के साथ बताशे रखे होते जो हर सूखते कंठ को नया जीवन प्रदान करते। रस्सी से बँधी बाल्टी या लोटे औऱ पास में रखी गगरी में बताशे हमारे प्राचीन भारत के लोक परम्परा का सौंदर्य बोध था जो मानवीय सेवा की मिठास में घुली होती। बदलते दौर में चापाकल के आने के बाद बाल्टी से रस्सी भले ही हटी हों होने किन्तु बताशे वैसे ही बरकरार रहे।
     मिठास तो भारतीय जीवन शैली में अनवरत काल से जुड़ा हुआ हैं किन्तु सफ़ेद मोतियों की मिठास तो चीनी के आने बाद ही बढ़ी पर चीनी को लेकर सफ़र करना सुविधाजनक नहीं था ऐसे में भुजे का व्यापार करने वाले भरभूज लोंगो के द्वारा चीनी की कड़ी चाशनी को ज़ब मीठे सोडे का साथ मिलाया तो ये मिठास की कैन्डी खनकते हुए सिक्कों की तरह घर बाहर यात्रा पर हर जगह साथ चलने लगे इनकी लोकप्रियता का आलम कि उत्तर से दक्षिण पूर्व से पश्चिम के पर्व परम्पराओं में अनिवार्य होते गये औऱ दीपावली जैसे उत्सव में इनकी अनिवार्यता ने तो इन्हे सुनहरे पँख प्रदान कर दिये। बताशे के विभिन्न रूप भिन्नता वाले इस देश में देखें जा सकते हैं कहीं इसके द्वारा बना हुआ माला सौंदर्य से अधिक सौभाग्य के प्रतीक के रूप में दिखता हैं तो अगुवानी औऱ विदाई में मन के भावों सूचक।
     बताशा आम तौर एक जैसे ही होते हैं किन्तु इसकी विविधता गंगा के मैदानी इलाकों में देखी जा सकती हैं पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवो क़सबो से से होते किसी भी दुल्हन के साथ जाते सामानो में बताशे की गगरी का एक अलग महत्व होता हैं रास्तों के थकान में बताशो के मिठास जो कभी रंग भरते थे अब दुल्हन के गांव में पहुंचते ही उसकी आगवानी के बाद भेजे जाने वाले बैने में ढूंढी के संग बतासे उसके नईहर का बखान गली मोहल्ले में घूम घूम करते। सिक्के के आकार के बताशे सिवान छपरा के साथ बढ़ते ही बढ़ने लगते हैं औऱ बलिया आते आते ये आधे किलो के हो जाते है
     बताशो ने हर दौर मे मिठास घोली हैं कभी केवड़े से नहाये औऱ गुलाब जल से तर ये बताशे उस दौर के नफ़ासत का किस्सा होते तो कभी किसी गरीब मज़दूर के दोपहर के प्यास का हिस्सा...किस्सों पर ध्यान आया कि भारतीय इतिहास की अज़ीम जोड़ी जहाँगीर औऱ नूरजहाँ कि पहली मुलाक़ात बताशे की मिठास में घुली हुई थी इतिहास उस दौर से आगे बढ़ता हुआ बहुत आगे निकल आया हैं किन्तु पर्व परम्पराओं में अपनी मिठास घोलते बताशे तो क़ायम ही रहेंगे।

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