चलो प्यास बुझाएं.... Let's quench our thirst...

गर्मी का ज़ब ज़ब जिक्र होता है तो मुझे वो शरबत याद आता है जो अपने नाजुक मिज़ाज़ से गर्मी की गर्मी निकाल देता उन दिनों डयोढ़ियों पर चढ़े चिक के परदो से होकर गरम हवा कुछ न कुछ अंदर चली ही आती थी औऱ ऐसे मौसम में किसी मेहमान के आते ही बरामदे से होकर गालियारे के बीच हलचल शुरू होती 
 
लम्बी गर्दन की सुराही से पानी निकाला जाता उधर आने वाले को बरामदे के दरवाजों पर आम के पेड़ से उतरे भुनगे कीड़े से निपटना पड़ता जो एकाएक करके उड़ते तो आने वाले के बाल में उलझते साथ ही कान में भी जाने की कोशिश करते बहरहाल अंदर आते ही बदले वातावरण में थोड़ी नरमी लू के मिज़ाज़ को बदल देंती उधर वो भुंगो से निज़ात पाकर कुर्सीयों पे बैठता उधर सुराहियों से निकाले,जग में पानी चीनी का घोल लेकर मिलाया जाता चीनी के घुलने पर शरबत में ऊंचाई पर रखी वही बोतल उतरती जो ज़माने से रूह अफजा के नाम से चली आ रही है वो सुर्ख लाल रंग का गाढ़ा शरबत ज़ब पानी में मिलाया जाता तो एक महक के साथ पूरे पानी के तासीर को बदल देती बैठक खाने में पेठे या बतासे के आमद को ख़ारिज करते ये शरबत गले से उतरते हुए तरावट में ऐसे डूबते कि खूबसूरत मिशाल बन जाते।
रूह अफ़ज़ा का सफ़र इतना आसान भी नहीं था बारहवीं शताब्दी में फ़िरदौस की बेटी के नाम पर रूह अफ़ज़ा का नाम पड़ा था मगर इस शरबत को रखने के लिए प्रयोग की हुई शराब की बोतले इस्तेमाल की गई। बंद बोतलों के इतिहास में रूह अफ़ज़ा ने बदलते इतिहास को बेहद करीब से देखा है मुल्क बटे मगर रूह अफ़ज़ा उसी स्वाद औऱ अनोखे अंदाज़ के साथ पुराने हिंदुस्तान के नए बने मुल्को में आज़ भी बदस्तूर जारी है।
इस सफ़र की शुरुआत 1906 में, यूनानी हर्बल चिकित्सा के एक चिकित्सक हकीम अब्दुल मजीद ने पुरानी दिल्ली में अपने क्लिनिक की स्थापना के साथ हुई जहाँ ये शरबत गर्मी में लू साथ औऱ भी परेशानियों में दिया जाता औऱ यही से इसके सुहाने सफ़र की शुरुआत होती है जो न केवल महानगरों बल्कि हिंदुस्तान के गाँवो तक इसकी पहुंच बन चुकी थी।
 
रमजान के रोजे में रोजेदारों की पहली पसंद आज़ भी रूह अफ़ज़ा है तो घर में एक पीढ़ी आज़ भी इसकी कायल है। हालांकि आज़ शरबत के रूप बहुत से पेय आ चुके हैं मगर रूह अफज़ा का ये सफऱ यूं ही चलता चला आ रहा है ये हमारी गर्मी की मुक्कमल प्यास की पहचान के साथ जुड़ा हुआ है । रूह अफ़ज़ा हमारे आपके घर के बुजुर्गों और उनके पास आने वाले दोस्तों के कहकहों के बीच घुलती हुई मिठास के बीच आज़ भी बैठा हुआ है। हमने दादी माँ की हथेलियों से इस बोतल को सहेजते हुए देखा है हमने बचपन की पार्टियों में ललचाई नज़रों से इस लाल शर्बत को निहारते हुए देखा है हमने तरबूज के जूस को इसके संग शर्माते देखा है हमने बर्फ के टुकड़ों के साथ इसे मस्ती करते हुए देखा है। हमने दूध के रंग को गुलाबी होते देखा है।
मैं चाहता हूं इसकी मस्ती इसकी नादानियाँ हर आने वाली नई पीढ़ी इसे देखे।
गर्मी को कोसो मत
बेहतर है कि
चलो किसी की प्यास बुझाएं
मयंक
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