आर्य समाज के प्रखर वक्ता ’पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी’ की पुण्य तिथि मनाई गई

बस्ती। आर्य समाज के प्रखर वक्ता, क्रान्तिमय विचारों के धनी ’पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी’ की पुण्य तिथि आर्य समाज नई बाजार बस्ती एवं स्वामी दयानंद पूर्व माध्यमिक विद्यालय सुर्तीहट्टा पुरानी बस्ती के संयुक्त तत्वावधान मे ऋतुअनुकूल हवन सामग्री के साथ विधि विधान शान्ति यज्ञ के माध्यम से मनाई गई।
इस अवसर पर प्रधान ओम प्रकाश आर्य ने बताया कि महर्षि दयानन्द सरस्वती से एक विज्ञान वर्ग का नास्तिक युवक जब अपने प्रश्नों द्वारा उन्हें निरुत्तर करना चाहता था तो महर्षि ने बड़ी सौम्यता से वेदों के रहस्य को समझाने लगे जिससे वह नास्तिक युवक पूर्ण आस्तिक बन गया। विद्यार्थी को निश्चित ही जिज्ञासु होना चाहिए जिससे वह अपनी शंकाओं का समाधान प्राप्त कर सद्ज्ञान का प्रसार कर सके। आर्य समाज नई बाजार बस्ती के पुरोहित श्री देवव्रत आर्य जी ने यज्ञ के पश्चात समस्त को सम्बोधित करते हुए कहा कि पंडित गुरुदत्त विद्यार्थी जी एक दार्शनिक विद्वान् थे जिन्होंने चौबीस वर्ष (24) की अल्पायु में ही संस्कृत, अरबी, फारसी, अंग्रेजी, वैदिक साहित्य, अष्टाध्यायी, भाषा विज्ञान, पदार्थ विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, शरीर विद्या, आयुर्वेद, दर्शन शास्त्र, इतिहास, गणित आदि का जो ज्ञान प्राप्त कर लिया था , उसे देख कर बड़े-बड़े विद्वान चकित रह जाते थे। आज विद्यार्थियों को उनका अनुसरण करना चाहिए। प्रधानाध्यापक आदित्य नारायण गिरि ने बताया कि किसी एक धुन के सिवा मनुष्य कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। धुन भी इतनी कि दुनिया उसे पागल कहे। पं. गुरुदत्त के अन्दर पागलपन तक पहुँची हुई धुन विद्यमान थी। उसे योग और वेद की धुन थी। जब गुरुदत्तजी स्कूल की आठवीं कक्षा में पढ़ते थे, तभी से उन्हें शौक था कि जिसके बारे में योगी होने की चर्चा सुनी, उसके पास जा पहुँचे। प्राणायाम का अभ्यास आपने बचपन से ही आरम्भ कर दिया था।
 इसी उम्र में एक बार बालक को एक नासारन्ध्र को बन्द करके साँस उतारते-चढ़ाते देखकर माता बहुत नाराज हुई थी। उसे स्वभावसिद्ध मातृस्नेह ने बतला दिया कि अगर लड़का इसी रास्ते पर चलता गया तो फकीर बनकर रहेगा। अजमेर में योगी महर्षि दयानन्द की मृत्यु को देखकर योग सीखने की इच्छा और भी अधिक भड़क उठी। लाहौर पहुँचकर पण्डितजी ने योगदर्शन का स्वाध्याय आरम्भ कर दिया। पं. गुरुदत्तजी को दूसरी धुन थी वेदों का अर्थ समझने की। वेदों पर आपको असीम श्रद्धा थी। वेदभाष्य का आप निरन्तर अनुशीलन करते थे। जब अर्थ समझने में कठिनता प्रतीत होने लगी तब अष्टाध्यायी और निरुक्त का अध्ययन आरम्भ हुआ।
धीरे-धीरे अष्टाध्यायी का स्वाध्याय पण्डितजी के लिए सबसे प्रथम कर्तव्य बन गया, क्योंकि आप उसे वेद तक पहुँचने का द्वार समझते थे। आपका शौक उस नौजवान-समूह में भी प्रतिबिम्बित होने लगा, जो आपके पास रहा करता था।
इस प्रकार दुर्गादासजी, जीवनदासजी, आत्माराम जी, पं. रामभजदत्तजी और लाला मुन्शीरामजी की बगल में उन दिनों अष्टाध्यायी दिखाई देती थी। उनके जीवन से हमें अनेक प्रेरणाएं प्राप्त होती हैं। यज्ञ मे विद्यालय के समस्त शिक्षक/शिक्षिकाओ एवं छात्र छात्राओ ने प्रतिभाग किया।

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