कोई टाइटल नहीं

लघुकथा -2
मिठाई
-डॉ0 राजेन्द्र सिंह ‘राही’
बस्ती उ0प्र0

सुरेश को बैंक का चक्कर लगाना अब खलने लगा था। उसके मन में कभी-कभी यह विचार भी आने लगा कि मैनेजर साहब से अपने कागजात वापस ले ले और किसी दूसरे बैंक की तरफ मुँह करे, शायद वहाँ काम हो जाए।
यद्यपि इसके पहले उसने एक बैंक में हाथ-पांव चलाया था किन्तु वहाँ बात इतनी आगे नहीं बढ़ पाई थी, जितना यहाँ। इसलिए उसके मन में कहीं न कहीं यह उम्मीद भी बनी हुई थी कि उसका काम जरूर हो जाएगा और यही उम्मीद उसे बार-बार बैंक जाने के लिए मजबूर कर रही थी। आज भी वह हमेशा की तरह बैंक खुलते ही वहाँ पहुँच गया और अन्दर जाकर मैनेजर साहब के पारदर्शी कैविन के बाहर रखी एक कुर्सी पर बैठकर कैविन की तरफ टकटकी लगाये इस उम्मीद में निहारे जा रहा था कि मैनेजर साहब की नजर पड़ते ही वे उसे अवश्य बुला लेंगे और कहेंगे कि आपका काम हो गया है किन्तु ऐसा नहीं हुआ।
समय बीतता रहा और दोपहर होने को आ गया, न तो मैनेजर साहब ने सुरेश की तरफ ध्यान दिया और न ही सुरेश खुद जाकर मैनेजर साहब से मिल पाया। यद्यपि इस बीच वह अपनी कुर्सी से तीन-चार बार उठा किन्तु कैविन में लोगों की उपस्थिति के कारण अन्दर नहीं जा सका और उसी कुर्सी पर बैठे-बैठे मैनेजर साहब के खाली होने की प्रतीक्षा करने लगा।
वह नहीं चाहता था कि जब वह मैनेजर साहब से बात करे, तो वहाँ कोई और हो। समय बीतने के साथ सुरेश का धैर्य धीरे-धीरे जवाब देने लगा उसे लगा कि अब और प्रतीक्षा करना ठीक नहीं है। वह हिम्मत करके कुर्सी से उठा और कैविन का दरवाजा खोलकर अन्दर चला गया। मैनेजर साहब कुछ अन्य लोगों से बातें कर रहे थे और बीच-बीच में उनका काम होने का आश्वासन भी दे रहे थे।
सुरेश ने अवसर देखकर पूछा, ‘‘सर, हमारा लोन पास हुआ?’’
मैनेजर साहब ने अपनी नजर तिरछी करते हुए उसकी तरफ देखा और कहा, ‘‘अभी नहीं हुआ है’’
यह सुनते ही सुरेश का चेहरा उतर गया, उसने दीन भाव प्रदर्शित करने हुए कहा, ‘‘सर, मुझे फार्म जमा किए हुए काफी समय हो गया है और मैंने सभी आवश्यक कागजात भी....‘‘मैनेजर साहब ने सुरेश की बात काटते हुए कहा कि, ‘‘आपके डाक्यूमेंट का वेरीफिकेशन हो रहा है। रिपोर्ट आने दीजिए, आपका काम हो जाएगा।’’
मैनेजर साहब के इस आश्वासन से सुरेश को कोई राहत नहीं मिली, क्योंकि यही आश्वासन उसे पहले भी कई मिल चुका था। उसने मैनेजर साहब की तरफ कातर भरी निगाह से देखा और हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘सर, प्लीज! मेरा यह लोन जल्द पास कर दीजिए, मुझे इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान खोलनी है।’’ मैनेजर साहब ने सुरेश की तरफ देखे बिना ही अगले सप्ताह आने के लिए कहा और अन्य लोगों से बात करने लगे। सुरेश मैनेजर के कैविन से निकलकर बैंक के अंदर ही एक कुर्सी पर बैठ गया। उसके चेहरे पर चिंता की गहरी लकीरें साफ-साफ दिखाई पड़ने लगी। उसे लगने लगा जैसे उसका सपना अधूरा रह जाएगा। वह समझ नहीं पा रहा था कि मैनेजर साहब उसका लोन पास क्यों नहीं कर रहे हैं? जबकि उसने सभी आवश्यक कागज जमा कर दिया है। वह मैनेजर साहब के दिन-दिन बदलते व्यवहार से भी क्षुब्ध था। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही मैनेजर हैं जिसने पहली बार वह मिला था। तब उन्होंने कितने अच्छी तरह से व्यवहार किया था, अब लगता है जैसे पहचानते ही नहीं। सुरेश मन में उत्पन्न इसी तरह के विचारों से जूझ रहा था कि तभी, बैंक के एक गार्ड ने उसे धीरे से हिलाते हुए कहा, ‘‘आप बैंक में कई बार आ चुके हैं और मैं देख रहा हूँ कि आज बहुत परेशान भी दिखाई दे रहे हैं। क्या बात है?’’
गार्ड के इन शब्दों में सुरेश को अपनेपन का अहसास हुआ। उसने सारी बात गार्ड को बता दी, यह भी बताया कि वह एक अति सामान्य घर का लड़का है। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न होने के कारण ऊँची पढाई कर पाना उसके लिए संभव नहीं था, इसलिए उसने इलेक्ट्रॉनिक ट्रेड से आई. टी. आई. कर लिया। उसका सपना है कि वह इलेक्ट्रॉनिक्स की दुकान खोलकर अपने घर की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करे। गार्ड लोन पास न होने का कारण जानता था, उसने सुरेश को धीरे से कहा, ‘‘लोन दो दिन में पास हो जाएगा, यदि आप मैनेजर साहब को लोन पास कराई कुछ... दे दें।’’ सुरेश गार्ड की अँगुलियों के संकेत को देखकर चौंक गया। थोड़ा क्रोधित होकर बोला, ‘‘मेरा सब कागज सही है, तो मैं लोन पास कराने के लिए पैसे क्यों दूँ? और मैनेजर साहब ने तो इसके लिए कभी कहा नहीं।’’ सुरेश की बात सुनकर गार्ड पहले तो थोड़ा मुस्कराया, फिर गंभीर होकर कहा, ‘‘तो आप, इसी तरह से बैंक का चक्कर लगाते रह जायेंगे। आप साहब को नहीं जानते।’’यह कहकर गार्ड अपने ड्यूटी स्थल पर जाकर बैठ गया और सुरेश भी कुछ बुदबुदाते हुए, मुँह लटकाये अपने घर वापस आ गया। घर आते ही उसके पिता ने पूछा, ‘‘बेटा आज काम हुआ कि नहीं?’’ सुरेश कोई उत्तर दिये बिना सीधे अपने कमरे में चला गया, किन्तु उसके उदास चेहरे को पिता ने पढ़ लिया। सुरेश ने शाम का भोजन नहीं किया। माँ ने बहुत मनाया किन्तु भूख नहीं है, कहकर सोने का बहाना करने लगा। माँ भी अन्ततः अपने कमरे में चली गई। इधर सुरेश बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। उसे मैनेजर साहब की वह बात बार-बार याद आ रही थी, जो उन्होंने पहली बार मिलने पर कहा था कि, ‘‘आपका काम तो हो जाएगा किन्तु मिठाई पहले खिलानी पड़ेगी।’’
वह इसके पीछे का रहस्य अब समझ गया था, उसे आज अपनी आर्थिक कमजोरी एवं बेरोजगारी पर तरस आ रहा था। वह अपने टूटते सपने को जोड़ते-जोड़ते कब सो गया? पता नहीं। 
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