भारतीय संस्कृति के लोक रंग

भारतीय संस्कृति की उच्चता को देखना हो तो धर्म शास्त्रों के साथ यहाँ के वृक्ष,वस्तु,जीव जंतुओ को भी देखा जा सकता है जो कहीं न कही अपने सन्देश और उपयोगिता को लिए हुए लोक मंगल की भावना के साथ जुड़े हुए है जो सदियों से हमारे व्रत और त्योहारों का हिस्सा है इन्हे सम्मान की उच्चता देने के लिए हमारे लोक गायन मे प्रमुख स्थान मिला हुआ है जो समय की धारा के साथ आगे बढ़ते हुए हमारे लोक संस्कृति को समृद्धि प्रदान करते है।
हमारे लोक संस्कृति मे एक ऐसा पौधा जो बेहद शर्मीला होता हैं इसका आकार झाड़ीनुमा और ऊंचाई महज दो फुट और तो और इसे केवल वर्ष में एक ही दिन खोजा भी जाता है। जब मां अपने पुत्र के लिए 24 घंटे बिना पानी के रह कर जीवित्पुत्रिका व्रत करती हैं। उस पौधे का नाम बरियार है जो शहरों के विकास मे लुप्त होता जा रहा है। फिर भी मार्गो बगीचों मे कही न कही ये दिखते ही है।
वर्षा आते ही तमाम वनस्पतियों से ये धरा मुस्कुरा उठती है हर तरफ उत्सव का माहौल होता हैं इन वनस्पतियों मे अपनी उपयोगिता महज एक दिन की होती है फिर भी वो हमारे आस्था मे जुड़कर पूजयनीय होता है। जीवित्पुत्रिका व्रत जिस पौधे की पूजा और दातुन किया जाता है कही कही चिड़चिड़ा से दातुन करते हैं किन्तु पूजा बारियर की हर जगह होती है इस बरियार को जिसे बला भी कहते है।ये विभन्न औषधि गुणों से भरपूर होता है जिसकी पत्तियाँ तुलसी के पत्तों जैसी होती हैँ। ये कहावतो मे भी शामिल हैं
अरियार का बरियार
लड़िका बने घरियार
इसे व्रत मे क्यों शामिल किया गया इसका भी बेहद दिलचस्प इतिहास हैं
उसी बरियार के साथ हमारी माताएं बैठती हैं, और माता सीता को संदेश देती है।
त्रेता युग मे माता कौशल्या इस पौधे के माध्यम से सीता को संदेश भेजती हैं वही पौधा भगवान राम और हमारी मां की बातों को दूत बनकर पहुँचाता है। अर्थात मां को अपने बेटे के जीवन के लिए कहे हुए वचनों को भगवान राम से जाकर सुनाता है। जब मां कहती है
“ये अरियार का बरियार
सीता के रखाहिए अकुवार
जा के कहिहअ राजा रामचन्द्र जी से
गणेश क माई खर जीयूतिया भूखल हई।
‘सोने की लाठी चानी की मूठ मोर बेटा मार के अईहअ मराके मत अईहअ”।
जो समय के कलखंड से होकर सभ्यता और संस्कृति के साथ जुड़कर हमारी परम्पराओं का अटूट हिस्सा बन गयी हैँ जो समूह गायन के साथ लिपिबद्ध होकर लोकगीत मे गुनगुनाई जाती हैं। इस बरियार पौधे से कुंती ने भी प्रार्थना की थी वो उसके अबोध शिशु की रक्षा करें जब उस शिशु करण को उन्होने जल मे उसका परित्याग किया था। शानदार ऐतिहासिक महत्व को लिए हुए ये ये पौधा कहीं झाड़ियों मे छिपा रहता है। ढूंढने वाले इसे ढूंढ लाते है निराजल उपासक माताओ के लिए यह आस्था का विषय होता हैं एक पौधा कैसे मा और उपासना के बीच मे प्रार्थना और भावना का स्थान बखूबी ले लेता है।
आज लोक रंग मे इतना ही....
मयंक श्रीवास्तव
बस्ती उ0प्र0
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