टिकट का सफर

मयंक श्रीवास्तव
इन दिनों हर तरफ टिकट की ही चर्चा है किंतु हमारे मानस पटल पर टिकट का नाम आते ही बचपन के वो दिन याद आ जाते हैं जब टिकट को लेकर एक लंबी जद्दोजहद होती थी।
तो बात उन दिनों की है जब हर परिवार में कम से कम चार बच्चे होते ही थे यदि चार नही दो से कम भी नही और ऐसे में कही आने जाने के लिये ट्रेन या बसे ही होती थी । अब यही साधन थे तो इन्ही से सबको जाना भी था तब रोडवेज पर टिकट काउंटर से टिकट कटते थे बाद में कंडक्टर सामान का टिकट बनाते साथ ही बच्चो का टिकट और इसी में सारा विषयगत सम्मोहन भी है। जिनके दो तीन बच्चे साथ मे सफऱ करते उनका उम्र कम बताया जाता जिस पर अच्छी खासी बहस कंडक्टर से होती ही रहती कभी कभी बच्चे से जब पूछा जाता तो वे अपना क्लास जिसमे पढ़ते और बता देते थे पर इसके बाद भी मामला शांत नही हो पाता कभी कभी कोई कंडक्टर भी अपने पर अड़ जाते फिर किसी तरह मामला सम्भलता कमोवेश यही बाते ट्रेन और कभी कभी सर्कस नुमाइश और पिक्चर हाल में होता बहरहाल आफ टिकट की वो यात्रा होती बड़ी मजेदार थी टिकट कट जाने के बाद अपनी शैतानियों से बच्चे ये बता देते थे कि उनकी असल उम्र क्या और असल मे वो हैं क्या ।
उन्ही दिनों एक टिकट और भी जीवन के बहुत नज़दीक रहा और वो था डाक टिकट तब काउंटर पे गोंद नही रखे जाते थे और यदि कही रखता भी था तो कुछ देर में गायब हो जाता अब लिफाफे पे टिकट चिपकाना तो था ही लिहाजा सबसे आसान था इधर टिकट लिया उधर ज़ुबान पर रखा और उसे चिपकाया ये सिलसिला चलता रहता जब तक कि टिकट पूरे न हो जाते बहुत बाद में समझ मे आया कि ये तरीका ठीक नही तब तक कई किस्म के गोंद फेविस्टिक बजार में आ चुके थे पर जब टिकट चिपकाने का सहूर आया तब तक ग्रीटिंग कार्ड और खतों का दौर खत्म हो चुका था।
अब तो गाहे बगाहे ही रोडवेज पर सफर होता है पर वो मगजमारी दिखती नही न ही वो चेहरे न ही वो बचपन तब साथ चलने वालों से रिश्ते निकल आते अब तो बुत बने इंसान होते हैं जिन्हें बगल की ही खबर नही होती है।
कुल मिलाकर हमारा हाफ टिकट का सफर पूरे टिकट से भी बेहतर रहा और ज़ुबान से चिपकाये हुए टिकट लगे खत की यादें आज भी जेहन मे लोगों को जोड़े हुए हैं।

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