गोरखपुर।
युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 52 वीं एवं राष्ट्रसंत
ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 7वीं पुण्यतिथि के अवसर पर चल रहे
साप्ताहिक संगोष्ठी के चौथे दिन “संस्कृत एवं भारतीय संस्कृति” विषय पर
अपना विचार रखते हुए मुख्य वक्ता सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय
वाराणसी के कुलपति प्रो0 हरे राम त्रिपाठी ने कहा कि भारतवर्ष की प्रतिष्ठा
संस्कृत और संस्कृति में ही है। संस्कृत भाषा, भाषा के साथ विद्या भी है।
संस्कृत के बिना भारतीय संस्कृति की कल्पना करना भी असंभव है, क्योंकि
संस्कृत के शास्त्र वेद, पुराण ,दर्शन, स्मृतियां ही भारतीय संस्कृति के
आधारभूत है। इनको भूलकर भारतीय संस्कृति को याद रखना संभव नहीं है। हमारा
सौभाग्य है कि हमारे संस्कृत भाषा में उपनिषद् रूपी ब्रह्मविद्या का वर्णन
है, जो मानव मात्र के लिए आत्म-साक्षात्कार का साधन है । यही भारतीय
संस्कृति का मूल तत्व है। संस्कृत भाषा अनादि है और उस में लिखे हुये वेद
भी अनादि है। भारतवर्ष की विरासत भारतीय दर्शन में है और भारतीय दर्शन
संस्कृत में है, इसलिए संस्कृत को विद्यालयों में लाना अत्यंत आवश्यक है,
ऐसा उच्च न्यायालय नेे निर्णय दिया है।
आज हर्ष का
विषय है कि भारत के प्रधानमंत्री व उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री संस्कृत
एवं संस्कृति के महत्व को समझने वाले है। प्रदेश में मुख्यमंत्री महंत
योगी आदित्यनाथ जी महाराज जी के द्वारा सभी विद्यालयों में अध्यापकों व
छात्रों को संस्कृत संभाषण का ज्ञान कराने के लिए अनेक योजनाएं निःशुल्क
चलाई जा रही है। छोटे बच्चों के लिए प्रत्येक गांव-मोहल्लों में
संस्कारशाला खोलने की योजना चलाई गई है। जब हमारे बच्चे व युवा संस्कृत
भाषा को समझेंगे तभी भारतीय संस्कृति को भी अच्छी तरह से समझ सकते हैं। हमारे
परिवार के प्रति कर्तव्य, राष्ट्र के प्रति कर्तव्य, मानव जाति के प्रति
कर्तव्य, प्राणी मात्र के प्रति कर्तव्य को हम संस्कृत के श्लोक के माध्यम
से जानते हैं तथा इन्हें नियम मानकर आचार-व्यवहार करते हैं। यदि संस्कृत का
अध्यापन नहीं होगा तो निश्चित रूप से हमारी संस्कृति की हानि होगी,
क्योंकि हम अपनी संस्कृति को भूलकर पाश्चात्य संस्कृति के प्रति झुकाव रखने
लगेंगे।
गीता प्रेस, गोरखपुर के प्रबन्धक डॉ० लालमणि
त्रिपाठी जी ने कहा कि विधाता ने सृष्टि के आदि में हीं व्यवहार के लिए
मनुष्यों को जो भाषा दी वह भाषा संस्कृत है। जैसे गाय केवल पशु नहीं, गंगा
केवल नदी नहीं, तुलसी केवल पौधा नहीं और गायत्री केवल छन्द नहीं उसी प्रकार
संस्कृत केवल भाषा ही नहीं अपितु संस्कृत एक ज्ञान राशि है। संस्कृत विश्व
कल्याण की भावना है। संस्कृत एक साधना है। संस्कृत संस्कृति है, जो संसार
से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। उन्होनें कहा कि समय-समय पर संस्कृत
पर अनेक कुठाराघात हुए, किन्तु संस्कृत उसी रूप में आज भी विद्यमान है।
संस्कृत को जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। हमें सन्तुष्टि है कि
वर्तमान सरकार संस्कृत के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक प्रयास कर रही है।
गोरक्षपीठ का इतिहास रहा है कि यहां संस्कृत और भारतीय संस्कृति के उत्थान
के लिए निरन्तर प्रयास चलता रहा है। हमारी भारतीय संस्कृति संपूर्ण विश्व
के कल्याण की कामना के साथ ही न केवल भौतिक अपितु आध्यात्मिक उत्थान की बात
करती है। यही इसकी विशेषताएं हैं।
अयोध्या से पधारे
जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी वासुदेवाचार्य जी महाराज ने कहा कि संस्कृत
भाषा न केवल भारतीयों के लिए ही अपितु मानव मात्र के लिए आचार, विचार व
व्यवहार को सिखाने वाली भाषा है। यह भाषा प्रायः सम्पूर्ण संसार में बोली
जाने वाली भाषाओं की जननी है। अंग्रेजी भाषा में प्रयुक्त होने वाले अधिकतर
शब्द संस्कृत भाषा के ही अपभ्रंश है। भाई के लिए अंग्रेजी में ब्रदर और
संस्कृत में भ्रातर शब्द का प्रयोग होता है, इन दोनों शब्दों की स्पेलिंग
एक ही। इसी प्रकार माता के लिए अंग्रेजी में मदर और संस्कृत में मातर दोनों
समान ही है। उन्होंने कहा कि हमारी भारतीय संस्कृति को समझने के लिए
संस्कृत को समझना आवश्यक है। संस्कृत और संस्कृति दोनों शब्दों का प्रकृति व
प्रत्यय एक ही होता है। इन दोनों का अर्थ है अच्छी तरह से दोष रहित किया
हुआ जो हो वहीं संस्कृत है और उस से युक्त जो भावना है वहीं संस्कृति कही
जाती है। हमारी संस्कृति में किए हुए के प्रति करने की भावना मुख्य है,
इसीलिए हमारे पूर्व महंत द्वय की पुण्य स्मृति में उनके किए हुए कृतियों को
याद करते हैं और उनके संकल्पों के अनुरूप हम अपना कर्तव्य निभाते हैं।
दिगम्बर
अखाड़ा अयोध्या के महन्त सुरेशदास जी महाराज ने कहा कि संस्कृत भाषा के
अध्ययन व अध्यापन से ज्ञान प्राप्ति के साथ ही साथ मन और बुद्धि की भी
शुद्धि होती है। यह हमारे अन्तः करण को निर्मल बनाकर भौतिक और आध्यात्मिक
उन्नति कराती है। भारतीय संस्कृति का मूल संस्कृत भाषा तथा उसमें लिखे हुई
साहित्य हैं, इसलिए हमारी संस्कृति पूरे विश्व में पूज्य है ।हमारी
संस्कृति में अपने से बड़ों के प्रति सम्मान देने की भावना संस्कृत ग्रंथों
में उल्लिखित है। हमारे जीवन के सभी 16 संस्कार संस्कृत भाषा में उल्लिखित
किए गए हैं।
केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय जयपुर
राजस्थान के प्रो० कमल चन्द्र योगी जी ने कहा कि भारतीय संस्कृति को जानने व
समझनें के लिए संस्कृत भाषा का अध्ययन आवश्यक है। जब यह देश अपनें
शैशवास्था में था तभी से हमारे मनीषियों ने जीव मात्र के कल्याण के लिए
जरूरी समस्त ज्ञान विज्ञान संस्कृत भाषा में पिरोया। जिसको आत्मसात् कर हम
विश्वगुरु बन पाये। संस्कृत भाषा राष्ट्र को जोडने का कार्य करती है।
आधुनिक समय में संस्कृत का सबसे प्रमुख महत्व संगणक के लिए है। जब तक हम
संस्कृत भाषा का व्याकरणीय ज्ञान नहीं रखेंगे तब तक संस्कृत भाषा के उपयोग व
महत्व को नहीं समझ सकते।
अध्यक्षता कर रहे पूर्व
कुलपति प्रो0 यू0 पी0 सिंह जी ने कहा कि हमारी संस्कृत भाषा भारतीय
संस्कृति का रीढ़ है, जो उपदेश हमारे पूर्वजों ने शास्त्रों में दिया है,
उसको अपने आचार और व्यवहार में लाने की भावना ही संस्कृति है। हमारी
संस्कृति में सभी पशु-पक्षियों, वृक्षों ,नदियों, पर्वतों तथा भूमि में
माता-पिता और देवता की भावना रखकर उसका उपयोग करना संपूर्ण विश्व के लिए
अनुकरणीय है। आज की प्राकृतिक आपदाओं से बचने के लिए प्रकृति के अनुरूप
आचरण और उपभोग करने की शिक्षा भारतीय संस्कृति ने ही दिया है। साहित्य की
बात करें तो छंदों की रचना सबसे पहले संस्कृत में हुई है। आज विदेशों में
संस्कृत में लिखें वैदिक सूक्तों पर शोध कार्य हो रहे हैं। संस्कृत में आए
हुए मंत्रों की शक्ति पर शोध करके वैज्ञानिकगण अपना वही निर्णय दे रहे
हैं, जो लाखों वर्ष पूर्व हमारे ऋषियों ने दिए हैं। आज आवश्यकता है कि हम
संस्कृत को पढ़ें व समझें और उसके माध्यम से भारतीय संस्कृति को पुष्पित व
पल्लवित करें।इस अवसर पर महंत शिवनाथ, योगी कमलनाथ, महंत मिथिलेशनाथ महाराज, महंत गंगादास महाराज, महंत राममिलन दास मंच पर उपस्थित रहे।
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