हर एक ग़म तेरा ऐ मुफलिसी भुलाना है.......जर्रार तिलहरी

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 ग़ज़ल

- जर्रार तिलहरी
हर एक ग़म तेरा ऐ मुफलिसी  भुलाना है
इसी  लिये  तो  मुझे  मैक़दे में जाना है

हसीन गुल का तो दीवाना ये ज़माना है
हमारा दिल ही नहीं आप का दिवाना है

तमाम  शह् र  में  तन्हा  यही फसाना है
मैं उसका और वो दिल से मेरा दिवाना है

यही हर एक तरफ आज कल  फसाना है
बस आज मन्दिरो मसजिद में ही ख़ज़ाना है

ज़माने भर की यहाँ उलझनों का है डेरा 
ये मेरा दिल है या कोई भंगार ख़ाना है

हमारी कब्र के सरहाने नाम अपना नहीं
तुम्हारे नाम की तख़्ती हमें लगाना है

किसी बुज़ुर्ग की बातों को अहमियत क्यूँ दें
वो जिन को सोच समझ कर फरेब खाना है

भलाई कर तो रहे हो किसी के साथ मगर
भलाई करने का जर्रार क्या ज़माना है
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ज़ख़्म जिस शख़्स से मिला होगा
वो कोई  आप  का  सगा होगा

इश्क  में और  दोस्त क्या होगा
दिल  का टूटा  ही आइना होगा

उन से जिस वक़्त राबता होगा
सोचता  हूँ  मैं  कुछ नया होगा

अपना  अपना ज़मीर है साहब
हर  कोई  कैसे  बा वफा होगा

कैसा  ईमान  तेरा ढुलमुल है
कोई  इन्सान  क्या  ख़ुदा होगा

फैसला किसके हक़ में होना है
तय तो पहले ही हो गया होगा

जाने दिलको है क्यूँ गुमां  जर्रार
मुन्तज़िर अब भी वो मेरा होगा
और नया पुराने